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दलित जीवन का एक कभी न अंत होनेवाला आख्यान ‘थमेगा नहीं विद्रोह’

पेशे से वरिष्ठ पुलिस अधिकारी श्री उमराव सिंह जाटव का प्रथम उपन्यास ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ एएक विशिष्ट उपन्यास है जो जातिगत शोषण के एक दीर्घकालीन कथा को विश्वसनीय तरीके से व्यक्त करता है। उमराव सिंह जाटव का यह उपन्यास दलित आंदोलन का एक सोचे-समझे सायास प्रयत्न का नतीजा है और इसे पढ़ते हुए पाठक को निरंतर इस बात का अहसास बना रहता कि इसका सृजन जाटवजी ने काफी सोच समझकर पूरा शोधकार्य करते हुए धैर्यपूर्वक किया है अत: ययह किसी रचनात्मक दबाव के बजाय सश्रम किए गए लेखन का प्रतिफल है। स्वयं लेखक का इस विषय में कथन है, “इस प्रकार, झक मारकर लगभग बिना मेरे अनुमोदन-आग्रह के यह तय हो गया लगता हैकि जीते-जागते पात्रों को लेकर ही कथा बुनने का दुस्साहस किया जाए।”[1] इस प्रकार निस्संकोच कहा जा सकता कि यह उपन्यास एक बड़े मनोमंथन का परिणाम है। इस उपन्यास की कहानी किसी व्यक्ति की कहानी नहीं है और न ही इक कथा का कोई पारंपरिक अर्थों में नायक या नायिका है। वास्तव में यहाँ किसी व्यक्ति-विशेष की कथान होकर समग्र समुदाय और जाटवों-गूजरों के एक गाँव की ही है जिसका नाम दरियापुर है और जो अपने किंचित भिन्न स्वरूप में पूरे भारत देश में कहीं भी देखा जा सकता है। लेख स्वयं कहता हैहै, “एक खबती ख्याल मेरे मन में जाग उठा है कि यह गाँव ‘दरियापुर’ जिसका नाम है, और जिसमें उपरोक्त वर्णित व्यक्ति तथा अन्य बहुतेरे व्यक्ति है, नायक, नायिका, खलनायक अपने आप में स्वयं ही हैं।”[2] किन्तु यह एक ऐसा गाँव है जहाँ गुर्जर और जाटव दोनों संप्रदाय केलोग शांतिपूर्ण नहीं बल्कि संघर्षपूर्ण सह-अस्तित्व बनाकर रहते हैं, जिसकी शिक्षा उन्हें दलितों के मसीहा डॉ. अंबेडकर से मिली है। “गूजरों की धींगामस्ती, जोर-जबरदस्ती, अत्याचार-अनाचार के सहारे इस गाँव की साँसें चलती औ रुकती हैं। अपने अस्तित्व और गरिमा को अक्षुण्ण रखने की जद्दोजहद में जाटव अलबत्ता गूजरों से झड़पने में परहेज नहीं करते हैं और प्राय: ही उउनके हाथों पिटते रहते हैं तथा कभी-कभार गूजरो को जमकर पीठ भी देते हैं... ताकत में ये गूजरों के समने उन्नीस नहीं बल्कि अठारह पड़ते हैं, लेकिन शिक्षा में ये मीलों आगे आगे हैं। शिक्षा के प्रति इनमें यह जागृति स्वर्गीय बाबसाहब भीमराव अंबेडकर के द्वारा दिए गए अमोघ मंत्र ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो’ के कारण है।”[3]

यह एक ऐसी दलित कथा है जिसमें उपन्यासकार ने दलितों के बहु-आयामी जीवन, उनके कुचले हुए अस्तित्व, उनके जीवन की रोज-रोज की जलालत, अपेक्षाकृत उनसे उच्च माने जानेवाले गूर्जरों द्वारा उनके अधिकारों के हनन, निरंतर कुचले जा रहे उनके मान-सम्मान जैसे लगभग पूरे भारतीय समाज में आम हो चुकी किन्तु कड़वी सच्चाई को मार्मिकता से उठाया है। कुल सत्तर प्रकरणों और 319 पृष्ठों में फैले इस उपन्यास में कहानियों में से कहानियाँ प्याज के छिलकों की तरह निकलती जाती हैं और हर कहानी एक श्रेष्ठ कहे जानेवाले संप्रदाय द्वारा हजारों वर्षों से निम्न कहे जानेवाली जाति के अनंत दमन के रेशे-रेशे को उजागर करती है।

मुख्य कथा दरियापुर की है। “आश्चर्यचकित न हो, यह दरियापुर की दुनिया है, और देश के लगभग हर गाँव-देहात क दुनिया भी ऐसी ही है।”[4] यहाँ दो जातियों के लोग बसते हैं – जाटव औरऔर गूजर। गूजर छोटे-छोटे जमीन के टुकडों के मालिक हैं और जाटव उनके खेत के मजदूर। हालाँकि निम्न जाति के कहे जाते हैं, किन्तु जाटव गूजरों के लिए अस्पृश्य हैं। गूजरों की बस्ती में दो कुएँ हैं – दोनों ही के मालिक गूजर ही हैं। किन्तु एक कुँआ उस जमीन पर है जिसे गूजर जाटवों को दे चुके हैं। दोनों के बीच यह कुँआ ही संघर्ष का कारण बनता है। दोनों समुदायों का यह संघर्ष गाँव की गलियों से प्रारंभ होकर कोर्ट-कचहरी तक पहुँचता है। यद्यपि कोर्ट-कचहरी इस लड़ाई में गूजरों की पराजय होती है। यह गूजरों की प्रतिष्ठा पर प्रहार था अत: वे इवे इसे मन से स्वीकारते नहीं हैं और जाटवों को तरह-तरह से परेशान करते रहते हैं। इस कार्य में उन्हें गाँव का दारोगा चंदा उनका साथ देता है जो स्वयं उनमें से ही एक है। आए दिन जाटव बस्ती से किसी भी नर-नारी को पकड़ लाना, उन्हें मारना-पीटना-घसीटना, असह्य शारीरिक और मानसिक यातना देना उनका नित्य कर्म है। जाटवों ने भी इसे अपरिहार्य समझकर स्वीकारना सीख लिया है।

यातना से अभ्यस्त जाटव गूजरों के विरूद्ध तब एकजुट होकर संघर्ष के लिए निकल पड़ते हैं जब उन्हें अपने हाथ से कुँआँ जाता नजर आने लगता है। गूजरों का अत्याचार बढ़ता जाता है। वे नित्यक्रिया के लिए अपने खेतों से आती-जाती जाटव-स्त्रियों पर उधर से आने-जाने पर प्रतिबंध लगा देते हैं। प्रतिकार स्वरूप जाटव भी गूजरों का रास्ता बंद कर देते हं। आपसी संघर्ष में हानि तो जाटवों की ही होती है किन्तु अपनों की मृत्यु के पश्चात् भी जाटवों का मनोबल टूटता नहीं और वे लगातार, बिना टूटे लड़ते रहते हैं। गूजरों को अहसास हो जाता है कि जाटवों के बिना उनका कार्य नहीं चल सकता अत: जाजाटवों के लिए कुँआ छोड़ देते हैं। वैमनस्य और गहरा हो जाता है।

‘थमेगा नहीं विद्रोह’ मात्र संघर्ष की ही कथा नहीं है। इसमें एक अव्यक्त प्रेमकथा भी है जो अपनी ऊँचाई के कारण आध्यात्मिकता के फलक को स्पर्श करती लगती है। दरियापुर में मुस्लिमों के भी चार-पाँच घर थे। ‘खाला’ एक दबंग और निर्भीक मुस्लिम महिला थी, किन्तु उनका हृदय बहुत कोमल भावनाओं से ओतप्रोत था। गाँव का एक शराबी जब तपेदिक के रोग से मर जाता है, कोई उसके शव के पास नहीं आता और लावारिश लाश अंतिमक्रियों केलिए किसी का इन्तजार करती रहती है। तब ‘खाला’ ने ही गाँव के लोगों को गालियाँ देते हुए उसका अंतिम संस्कार करवाया था। खाला के चरित्र और व्यवहार में तना बड़प्पन होता है कि उनके अपशब्दों केबावजूद उनके आदेशों को टा जाने की किसी में हिम्मत नहीं होती। वही खाला गाँव में घूमते फकीर से इस कदर प्रेम करती हैं कि उस फकीर की मृत्यु के कारण उनकी सारी कठोरता मोम-सी पिघल जाती है और वे भग्न-हृदय विलाप करने लगती हैं। उनकी सच्चाई सिर्फ हमीद और उसकी बीवी जानती है। गाँव के अन्य लोगों के लिए फकीर के गाँव में आना, उसका खाला के घर की ओर चाहत भरी दृष्टि से देखना और फिर प्राणों का त्याग देना एक रहस्य बनकर रह जाता है। खाला का सारा व्यवहार भी उनके लिए कभी न सुलझनेवाली पहेली ही बनी रहती है। रहस्य पर से पर्दा वह स्वयं ही हटाती है। “खाला के एकालाप को गांववासियों ने कोई विशेष तरजीह न दी यह सोचकर कि सौनपाल के मुर्दे को हाथ लगाने से उसके मस्तिष्क पर असर हुआ है जो चार-छह दिन में अपने आप क्षीण हो जाएगा। या किसी जिन्न-प्रेत का साया खाला पर है। नजदीक से मृत्यु को देखने पर भी कई लोगों पर ऐसा प्रभाव देखा जाता है। लेकिन खाला को पूरे-पूरे दिन ‘तेईया बुखार’ में तपते रोगी समान बड़बडाते देख लोगों ने खाला से से पूछ-गछ की तब वह भावशून्य आँखों से आकाश ताकती हुई कहती - “कहता था तेरे बिना एक दिन न जीऊँगा लेकिन देख लो मेरे जिंदा रहते ही मर गया! वायदा तोड़कर चला गया। मेरा इंतजार भी न किया.. कहता था... अल्ला...खुदा....भगवान... परमात्मा सब झूठे हैं.. नसरीन बस तू सच्ची है..., और देख ला वह खुद कितना झूठ था। एक बार साथ देने के लिए कहता तो सही।” आसमान की ओर दोनों हाथ उठाकर आगे बड़बड़ाती - “तू देखना मैं तेरा पीछा वहाँ भी छोड़नेवाली नहीं हूँ।.. मैं आऊँगी तब पूछूँगी।””[5]

हकीकत में वह फकीर संतोष नामक हिंदू युवक था. खाला मुस्लिम थी। अलग-अलग संप्रदाय का होने के कारण दोनों का प्रेम किसी परिणाम तक नहीं पहुँचा था। उस युवक में इतना साहस नहीं था कि वह अपने प्रेम का इजहार खाला के भाई हमीद से करता। खाला भी जिंदगी भर उसके प्रेम का इंतजार करीत रहीं। और उनके प्रेम का करूण अंत आ जाता है। जातियाँ और उपजातियों के दूषण ने न जाने कितनों के अरमानों और जिन्दगियों को निर्ममता से खत्म कर दिया। “सारे मर्द एक जैसे, सारी स्त्रियों का दुख-दर्द एक जैसा, एक जैसी मजबूरियाँ। महजहबों की सख्त बंदिशों की मुश्क में जकड़ी औरतें। सारे नियम-कायदे औरतों के लिए। सारे मजहब मर्दों की हिमायत में खड़े हुए। तिल-तिल क्षय होती हुई, तिल-तिल मरती हुई नसरीन की आँखों में झलकता निस्सीम प्रेम, उस एक शख्स के लिए जो कायर बना अपनी पलायनवादी सोच केसाथ नसरीन के लिए कुर्बान हो गया।”[6]

‘थमेगा नहीं विद्रोह’ कई कथाओं-उपकथाओं का गुच्छ है। किन्तु कोई भी उपकथा गौण नहीं है और न ही महत्वहीन है। ‘भागमली’ जन्म से ही भाग्यवान साबित हुई थी। उसके जन्म के साथ ही पिता को बंधी मजदूरी मिल गईष नत्थन गूजर के खेतों में। हालाँकि वह जिन्दगी-भर की गुलामी थी किन्तु उसका नाम भागमती पड़ गया। खुशी की अभिव्यक्ति के लिए पिता ने देवी की यात्रा करना चाहा और नत्थन गूजर एक हजार रूपया उधार लिया जिसे वह ताजिन्दगी नहीं उतार पाया। यह किस सफलता की खुशी थी? दो वक्त की रोटी मिलती रहे, देह में साँसों की डोर चलती रहे, जिससे कि जिन्दा रह सकें गूजरों के खेतों में बेमारी करने भरने के लिए शरीर में शक्ति बनी रहे। और जटकड़े की औरतें बच्चे जनती रहें कि हर बच्चे की माँ उन्हें अपने कलेजे का दूध पिलाकर, अपने पेट की रोटी स्वयं न खाकर उसे खिलाकर जवान करे जिससे कि उसका बेटा गूजरों के खेत में, घर में एक कदावर और अच्छी कमाऊ, बेगारी करनेवाला मजदूर बने, कि बेगारी करते-करते वह तपेदिक का रोगी होकर मर जाए, किन्तु मरने से पूर्व चार-छह और भी मजदूर पैदा करता जाए।”[7] हालात से मजदूर पिता ‘भागी’ का विवाह तपेदिक के एकरोगी से कर देता है। कुछ ही महीनों बाद वह तपेदिक रोग से मर जाती है – बिना इलाज। उसके पति का इलाज करवाया जाता है, परंतु तीन साल बाद वह भी मर जाता है।

सर्वाधिक दर्दनाक कथा चावली की है। वह अपनी माँ की तरह पाखाना साफ करने का काम करती है। माँ चावली को सुबह ही उठा देती – दो झापड़ मारकर फिर उसके हाथ में टट्टी कमाने के लिए टोकरा पकड़ा देती। पाखाना साफ करने में वह बहुत निपुण थी औ सभी का समय जानती थी। वह कहती, “उमर गुजर गई गू मूत कमाते। इसकी बास मेरे जीवन में इतनी समा गई कि सुबह उठते ही सूँघने को ना मिले तो बहुत बेचैनीहोती है। एक दो घर कमा लेती हूँ तब जाकर चैन आता है।”[8] वह चावली अधेड उम्र में क दायी बन जाती है जो स्वयं नि:संतान है।

इस तरह उमराव सिंह जाटव का प्रथम ही उपन्यास ‘थमेगा नहीं विद्रोह’ दलित जीवन का एक कभी न अंत होनेवाला आख्यान है।

संदर्भ-सूचि::

1. ‘थमेगा नहीं विद्रोह’, उमराव सिंह जाटव, पृ. 14
2. वही, पृ. 21
3. वही, पृ. 24
4. वही, पृ. 26
5. वही, पृ. 45
6. वही, पृ. 49
7. वही, पृ. 102
8. वही, पृ. 184

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फूलचन्द गुप्ता
आसि. प्रोफेसर
साबरग्राम सेवा महाविद्यालय सोनासन,
जि. साबरकांठा, मो. 9426379499

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