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प्रेमचंद : प्रत्रकारिता एवम संपादक

साहित्य को समाज का द्पॅण माना गया है । साहित्य रुपी द्पॅण हम अपने समाज की छबी को द्देख सकते है । साहित्य की भ्राती प्रत्रकारिता भी समाज की छबी को प्रस्तुत करती है । ईसी समनता के कारण साहित्य ओर प्रत्रकारिता एक दुसरे के पूरक है । हिन्दी साहित्य पर नजर करे तो पता चलता है कि कई साहित्यकार पहले प्रत्रकार थे तथा पहले साहित्यकार ओर बाद प्रत्रकार हुए है । दोनो का दायित्व भी एकसा है । प्रेमचंद भी एक सम्पाद्क रहै । जहाँ उनको कहानीकार मिली उपन्यासकार के रुप मै अत्यंत ख्याति मिली वहाँ प्रत्रकार के रुप उतनी न मिली ।

भारतेन्दु ओर महावीर् प्रसादजी के बाद प्रत्रकारिता के क्षेत्र मै तुंरत तीसरा नाम कोई हमारे सामने आता है तो वह प्रेमचंद का है । अगर प्रेमचंद प्रत्रकार न् होते तो युग प्रवतक होने का श्रेय उन्हें न मिलता । सन 1920 से 1936 तक के बीच प्रेमचंद का कार्य एक सफल प्रत्रकार के रुप मै दिखाई देता है ।

ह्ंस के अतिरिक्त स्वदेश , मर्याद्दा , जमना , जागरण् , माधुरी जैसी प्रत्रिकओ का संपाद्न् कार्य भी किया था लेकिन प्रेमचंद का संपादकीय रुप ह्ंस से ही सामने आता है । प्रेमचंद ने 10 मार्च 1930 मै ह्ंस का प्रवेशांक निकाला ओर प्रत्रकारिता के क्षेत्र मै एक नये ईतिहास की नीव रखी । प्रेमचंद पूरे 7 साल तक ह्ंस के साथ तन् , मन , धन से जुदे रहे । तथा ईससे उनकी संपादकीय प्रतिभा सतत उभरती रही।

ह्ंस साहित्क प्रत्रिका थी । उस समय के बडे से बडे रचनाकार की कहानी , कविताए , निबन्ध ओर समिक्षाए प्रकाशित होती थी । साथ मे प्रेमचंद ने अपने संपादकीय विचार मे तत्कालीन सामाजिक एवं राजनैतिक प्रश्नो को उठाया । गान्धीजी के विचारो से प्रेरित स्वराज्य की बात कही है ।

सन 1931 मे समाज को झकझोर देनेवाला लेख ‘मानसिक पराधीनता’ के शीषॅक से ह्ंस मे छपा था जिससे प्रेमचन्द ने देश की जनता को दासता की जंजिरे तोड कर विचारो के खुले आसमान मे आने का आहवाहन किया। प्रेमचंदजी की संपाद्क कला की सही पहचान जनवरी-फरवरी 1932 मे ह्ंस के आत्म्कथात्म्क विशेषांक के रुप मे दिखाई देती है । ईस आत्म्कथात्मक विशेष अंक हिन्दी मे यह अपने ढंग का अनुठा प्रमाण था । ईसमे तत्कालीन सभी बडे साहित्य्कारो ने अपने निजी अनुभवो को बडी ईमानदारी से प्रस्तुत किये है। ईस अंक से हिन्दी साहित्य मे एक विशेष विधा के द्रार खोल दिये ।

प्रेमचंदजी की संपाद्क कला तब ओर निखरती है जब उन्होने आचार्य महाविर प्रसाद द्रिवेदी अभिन्द्नांक विशेषांक के रुप प्रकाशित किया । ईसमे प्रेमचंदजी ने संपाद्कीय मे लिखा - था ‘ स्वभाव से अत्य्ंत र्दढ-प्रतिज्ञ ओर ह्द्य से परम कोमल , ये हमारे अपने है ये हमे हमारी गलतियो पर फटकारते थे , उन्हे प्रेमपूर्वक सुधार देते थे ओर हमारी सफलता पर हमे प्रेम के मोदक भी खिलाते थे। ईन सबके बदले आज हम उनका जितना भी सत्कार करे , थोडा है ।

प्रेमचंदजी के पास अपने विचारो की दुनिया थी । ह्ंस के माध्यम से उन्हो ने रुढियो की दिवारो को तोड था ओर साहित्य क्षेत्र मे नये सूर्य का स्वागत किया था। सच मे वह कलम के सिपाही थे। प्रेमचंदजी ने ह्ंस के माध्यम से प्रगतिशील साहित्य की नीव डाली । ह्ंस मे छपनेवाले विज्ञापन भी उनके आदर्शो की कसोटी पर कसे जाते थे । ह्ंस की चिंता करते उनके प्राणो का ह्ंस उड गया लेकिन एक संपाद्क एवम पत्रकार की अमीट छाप छोड गया ।

सन्दर्भ :::

1. हिन्दी साहित्य का ईतिहास डो. नगेन्द्र
2. हिन्दी प्रत्र –प्रत्रकाए

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प्रा. महेश वाघेला
सरकारी विनयन ओर वाणिज़य कोलेज
काछल ता. महुवा जि. सुरत

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